इस कुप्रथा का आरम्भ संभवतःगुप्तकाल के आसपास हुआ था। गुप्त शासक भानुगुप्त के एरण अभिलेख(510 ईस्वी) में इस प्रथा के बारे में उल्लेख मिलता है।इस प्रथा के तहत स्त्री अपने पति के शव के साथ स्वयं को भी जला लेती थी। इसके पर्याप्त साक्ष्य है कि इसके लिए समाज का दबाव होता था तथा सती होने वाली महिला को नशीला पदार्थ खिला दिया जाता था ताकि उसे कुछ पता ना चला। जब भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई तब भी इस प्रथा का प्रचलन था।कम्पनी के प्रयास-
कम्पनी इस प्रथा को समाप्त करने के सम्बंध में बहुत अधिक सावधानी से कार्य कर रही थी क्योंकि इस समय कम्पनी को विद्रोह का डर था। १८ वीं सदी के अंत तक कलकत्ता सप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रथा को समाप्त करने के प्रयास आरम्भ कर दिए थे।इसी समय श्रीरामपुर ,चिनसुरा,चंद्रनगर आदि स्थानों पर इस प्रथा को हतोत्साहित किया जाने लगा था। 1770 से 1780 के मध्य बम्बई प्रेज़िडेन्सी ने भी सी पर प्रतिबंध का प्रयास किया था।लेकिन कोई क़ानून नही बनाया जा सका ।
शाहबाद के कलेक्टर एम. एच. ब्रुक ने कार्नवालिस को लिखा था इस कुप्रथा को रोकने के लिए नियम बनाने की ज़रूरत है लेकिन गवर्नर जनरल हिचकिचा रहा था क्योंकि उसे विद्रोह का डर था।कार्नवालिस ने अपने लोगों को सलाह दी थी कि वे इस प्रथा को हतोत्साहित करे लेकिन बल प्रयोग ना करे।
1813 में मजिस्ट्रेटों तथा अन्य अधिकारियों को यह अधिकार दिया गया कि वे एक स्त्री को सती होने से उस दशा में रोक सकते है यदि सती होने के लिए बल प्रयोग किया गया हो या वह नाबालिग हो या गर्भवती हो।
1817 में यह नियम बनाया गया कि एसी स्त्री सती नही हो सकती जिसके नाबालिग संतान हो जिसकी देखभाल करने वाला कोई ना हो।लेकिन सरकार ने पूर्ण प्रतिबंध नही लगाया।
भारतीयों का योगदान-
उपर्युक्त परिस्थितियों में ही कुछ प्रगतिशील भारतीयों ने भी प्रयास आरम्भ किए।राजा राम मोहन राय इनमे अग्रणी थे।राम मोहन राय ने अपनी भाभी को सती होते हुए देखाथा।

राजा राम मोहन राय ने 1818 में सरकार को पत्र लिखकर बताया था कि यह प्रथा शास्त्रों के अनुसार आत्महत्या है ।इन्होंने संवाद कौमुदी नामक पत्रिका के माध्यम से सती प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार करने का प्रयास किया।
लेकिन इसी समय राधाकान्त देव के नेतृत्व में कुछ रूढ़िवादी नेताओ ने सती प्रथा के समर्थन में प्रचार आरम्भ किया इन्होंने चंद्रिका नामक पत्रिका के माध्यम से यह कार्य कियाथा।
विलियम बैंटिक का प्रयास-
इन्ही परिस्तिथियों में जुलाई 1828 में विलियम बैंटिक भारत आया , यह सुधारवादी विचारोंसे युक्त था।

राधाकान्त देव ने चंद्रिका नामक पत्रिका के माध्यम से बैंटिक को बताया कि सती प्रथा एक आदरणीय प्रथा है सरकार इसे समाप्त ना करे लेकिन बैंटिक ने ध्यान नही दिया।
4 दिसम्बर 1829 को रेग्युलेशन 17th के माध्यम से सती प्रथा को बंगाल में दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया।1830 में इसे बम्बई व मद्रास में भी अपराध घोषित कर दिया गया।
लेकिन अभी तक यह ब्रिटिश भारत में ही लागू हुआ। धीरे धीरे देशी रियासतों ने भी अपराध घोषित किया जैसे अहमदनगर(1836),जूनागढ़(1838),सतारा(1846),पटियाला(1847) आदि।हालाँकि इसके बाद भी रूढिवादियों ने प्रयास जारी रखा इन्होंने जनवरी1830 में England की प्रिवी काउन्सिल में अपील की जिसे 1832 में ख़ारिज कर दिया गया ।
इस तरह सती प्रथा सैद्धांतिक रूप से समाप्त हो गई लेकिन व्यावहारिक रूप में इसका प्रचलन स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहासितम्बर 1987 मै राजस्थान के सिकर ज़िले में रूप कंवर सती हुई थी।

रूप कंवर सती कैस भारत में सती प्रथा का अंतिम ज्ञात कैस माना जाता है।